मंगलवार, 23 अगस्त 2011

IIT-पीएम गो बैक, नहीं चाहिए डिग्री


आईआईटी कानपुर के एक छात्र ने प्रधानमंत्री के हाथों से डिग्री लेने से इंकार कर दिया। सिविल इंजीनियरिंग फाइनल का छात्र शशिशेखर और उनके साथियों ने तख्ती पर लिख रखा था पीएम गो बैक। ऐसे ही 1927 में जब साइमन कमीशन का गठन हुआ था और 1928 में जब भारत पहुंचा तो साइमन कमीशन गो बैक के साथ देश भर में भारी विरोध हुआ। लाला लाजपत राय ने नेतृत्व में साइमन कमीशन का भारी विरोध हुआ। भ्रष्टाचार की वहज से पनपा है अवसरवाद, आतंकवाद, नेताखरीदवाद, जनता सेवाथेरेपी, जातिवाद की राजनीति, सांप्रदायिकता की भीतरघातनीति, अमेरिकापरस्तीकरण, और भी बहुत कुछ। इन सबके पीछ भ्रष्टाचार है। खुद बने रहने के लिए सारे तंत्र को भ्रष्ट बना दो। भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की धार को कुंद करने के लिए एक भ्रष्टाचार की सहायता ली जा रही है। कई शाही और सलाहकार प्रायोजित हैं जो कभी वन्दे मातरम और कभी भारत माता की जय को भी आगे रखने हैं और किसी समाज को अपनी जागीर समझ लेते हैं जबकि वह समाज अपनी बुद्धि से चलने को तैयार है। मामला साफ है कि ऐसे लोगों की दुकानदारी बंद होने वाली है, अथवा साफ बात यह है कि ऐसे लोगों के अस्तत्व पर ही आ पड़ी है। रामलीला मैदान में जनता उमड़ रही है। कृष्णाष्टमी पर कृष्ण का अन्ना अवतार लोगों ने देखा। सांसदों का घेराव हो रहा है और उनके सुर भी बदलते जा रहे हैं। हद हो गई प्रधानमंत्री जी कि छात्र ने पीएम गो बैक कर दिया। आईआईटी दुनियां का मानक संस्थान है। प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री है। लेकिन-
जनता की रोके राह समय में दाब कहां
वो जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

कई अन्ना की जरूरत अभी और पड़ेगी


राजीव रंजन विद्यार्थी, प्रोड्यूसर, सहारा समय

74 साल के अन्ना ने अनायास ही भोजपुर (बिहार) के स्वंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह जी की याद दिला दी है। 80 साल की बूढ़ी हड्डी में जो जोश कुंवर जी का था, वही जोश अन्ना हजारे जी में भी दिख रहा है। अन्ना ने अनशन के जरिए एक बार फिर ये साबित कर दिया है कि जोश युवा शरीर में नहीं बल्कि संकल्प-शक्ति में होती है। मजबूत इरादों में होती है। अन्ना में न केवल वो संकल्प शक्ति दिखी है, बल्कि युवाओं को कैसे एकजुट किया जाता है? इस नब्ज को भी परखा है। युवा कल की ताकत हैं। इस ताकत को जैसे चाहें इस्तेमाल कर लें, लेकिन, ये भटकना नहीं चाहता। भटकाव के रास्ते पर चलते-चलते युवा इतना थक चुका है कि वो अन्ना के साथ चल पड़ा है। काश! अन्ना की ये शक्ति राजनीतिक चश्मे वालों को भी दिख जाती। देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही नहीं, सरकार के कई मंत्री भी बूढ़े हो गये हैं। वर्ना क्या वो अन्ना की तरह नहीं होते! उनमें ये शक्ति है ही नहीं। या फिर वो राजनीतिक चश्मे की वजह से ये सब देखना नहीं चाहते। न जाने वो इस देश को क्या देकर जाना चाहते हैं! वो भारत के प्रतिनिधि हैं। भारत जो चाहता है, जो जनता चाहती है। वो उसे छोड़कर अपनी पार्टी और अपनी चाहत को पूरा करना चाहते हैं। ऐसी ढीठाई का ही नतीजा हैं, अन्ना, उनकी टीम और देश के करोड़ों युवा। लेकिन, नक्कारखाने में तूती बोले या तंबूरा, फर्क क्या पड़ता है ? हजारे के बैठने के बाद नेता दनदनाकर उठ खड़े हुए हैं। उनके बैठने के बाद नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं हैं। उन्हें हराने के लिए हजारों हथकंडे जोड़े जा रहे हैं। कुछ तो नसीहतें भी दे रहे हैं। हजारों रातें, हजारों दिन देखने वाले हजारे को हाथ में कर लेना इतना आसान थोड़े है। समाज का हर शख्स जिनके दिल में थोड़ी-सी भी ईमानदारी की तमन्ना है वो आज अन्ना के साथ है। अन्ना के साथ एक नहीं अनेक है, एक दूसरे को ये कहते हुए कि कब तक घूस दोगे? कब तक तलवे चाटते रहोगे। चमचागिरी करके बढ़ते रहोगे ? कब तक बेइमानों के बीच ईमानदारी की दुहाई देकर दाल-रोटी के लिए जूझते रहोगे? नेता से लेकर नौकरशाह तक जहां चमचागिरी और चूना लगाने की परिपाटी हो, वहां एक अन्ना की हिम्मत बड़ी काम आई। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की ये मुहिम इस मायने में और अहम हो गयी है कि दमघोटू माहौल में अन्ना जैसे लोगों ने दम तो दिखाया ! किसी ने करोड़ों लोगों के दिल में दबी जुबान को हिलने का खम तो दिया ! इस खम से देश के सामने आज करोड़ों लोग खम्भे की भांति सरकारी लोकपाल बिल के विरोध में उठ खड़े हुए हैं। देश में कानून की कोई कमी नहीं है। लेकिन, कानून को अपने हिसाब से मोड़ने वाले नेताओं के लिए अन्ना आज अभेद बन गए हैं। बड़े शर्म की बात है कि उम्र के इस पड़ाव में सरकार एक ईमानदारी भारतीय की ईमानदारी की परीक्षा ले रही है। उसे भूखे रहने पर मजबूर कर रही है। सत्याग्रह को दुराग्रह साबित करने पर तुली हुई है। मिल बैठकर जो सही हो, उसे करने पर आपत्ति क्या है? सरकार के रुख से साफ हो गया है कि आज तक जनता के मतलब की केवल बात होती रही है। जनता की ओर से चुनी गई सरकार भले बनती रही हो। वो केवल अपना फायदा देखती रही है। वर्ना क्या बात है कि सरकार अड़ियल हो गयी है। नक्सलवाद और माओवाद के साथ गरीबी के पनपने के पीछे सरकारी अड़ियलपन ही जिम्मेदार है। ये अब कहने में कोई गुरेज नहीं। मतलब से मतलब रखना यही नेताओं की सोच रही है। अन्ना की तरह कोई नेता भूखे रहकर देखे, कि भूख क्या होती है? अन्ना की तरह कोई नेता सोच कर देखे कि चिन्ता क्या होती है? अन्ना की तरह कोई नेता रह कर देखे कि मुफलिसी क्या होती है? अन्ना की तरह कोई अनशन करके देखे कि आंदोलन क्या होता है? अन्ना की तरह कोई जी कर देखे कि जिन्दगी क्या होती है? अन्ना की तरह बोलकर देखे कि बात कैसे बनती है? अन्ना की तरह कोई सो कर देखे कि नींद कैसे हराम होती है? यकीन के साथ कहता हूं कि आज कोई भी नेता ऐसा नहीं करेगा। क्योंकि ये नेता केवल दिखावे के हैं। हथकंडों के सहारे जीते है। हथकंडों के लिए जीते और मरते हैं। लेकिन, ऐसे जीने-मरने वालों के एक लिए हजारों नहीं एक अन्ना हजारे ही काफी है। तो कल के नेताओं अन्ना की तरह त्याग सीख लो। क्योंकि मूक-बधिरों को जगाने के लिए ऐसे कई अन्ना की जरूरत अभी और पड़ेगी।

शनिवार, 20 अगस्त 2011

सिब्बल का दर्द, जनता के हमदर्द!

कपिल सिब्बल की बात को हमेशा याद रखना पड़ेगा। अन्ना की गिरफ्तारी के बाद राज्यसभा और लोकसभा की कार्यवाही को याद रखना पड़ेगा। याद रखने लायक है ऐसा नहीं बल्कि याद रखना पड़ेगा। सिब्बल का बयान था सदन में उपस्थित सभी लोगों के लिए अर्थात् सभी सांसदों के लिए अथवा सांसदों के माध्यम से बाकी सभी नेताओं के लिए कि आप सभी अपने पैर में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। अन्ना को समर्थन का मतबल नेता अपने पैर में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। अन्ना की गिरफ्तारी का विरोध का सीधा सीधा मतलब अन्ना को समर्थन के रूप में ही देखा गया। सिब्बल का दर्द था या फिर सिब्बल की जीन्दगी का टूटता उद्देश्य, वे कह रहे थे कि एक बात समझ लीजिए कि आप लोग अपने पैर में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। अर्थात् अगर अन्ना की ओर चले, भ्रष्टाचार पर हमला किया तो कुल मिलाकर घाटा आपको ही है अर्थात् नेताओं सांसदों को ही है। सिब्बल की मंशा क्या हो सकती है- कि आज हम सरकार में हैं कल हो सकता है कोई दूसरा दल रहे लेकिन सदन और नेतागिरी के भीतर से जो कुछ सुविधाएं और खेल वे कर सकते हैं, वो तो जारी रहेगा। संसद ऊपर है इसलिए यहां पहुंचने वाले भी स्वयं को जनता से ऊपर मानने लगते हैं। अब इस वर्चस्व पर आधात होने का भय सिब्बल को सता रहा है। इसलिए उन्होंने कहा था कि हम ही नहीं आप लोग सुविधा भोग रहे हैं। हम यहां आमने-सामने हैं तो क्या हुआ। आज समय आ गया है कि पक्ष-विपक्ष मिलकर अन्ना से निपट लेते हैं ताकि आने वाले समय में फिर अपनी सत्ता जमी रहे। प्रश्न उठता है कि देश में सर्वाधिक भ्रष्टलोग कौन हैं तो उत्तर इन्हीं तथाकथित खादीधारियों की ओर जाता है। उसके बाद ही अधिकारियों की बात हो सकती है। यह सच है कि नेताओं को खेलना भी अधिकारी ही सिखाते हैं लेकिन यह भी सच है कि नेताओं को इस खेल में कुछ खास नहीं करना पड़ता है, सदन में आवंटन पर चर्चा हुई, पारित हुआ, पहुंच गया इनके पास और लोगों तक जाते जाते क्या होता है यह बताने की जरूरत नहीं। घोटाले होते हैं तो पहले अधिकारी पकड़े जाते हैं लेकिन जड़ में नेता होते हैं यह बात खुलते खुलते आमतौर पर दब ही जाती है, कुछ ही खुल पाती है। सिब्बल या कांग्रेस की व्यथा यहीं से शुरू होती है। इन सांसदों को देखने वाला नापने वाला और निगरानी रखने वाला अगर कोई हो गया तो क्या होगा? ये लोग सदन में संन्यास भाव से तो आए नहीं हैं। इनमें ज्यादातर लोगों की जिन्दगी कई कई उपन्यास हैं। इसलिए सिब्बल सांसदों को उसकाने और सुलगाने की कोशिश की-हमाम में हम सभी है। उस पार न जाने क्या होगा? अन्ना की ओर मत बढ़ो ये रास्ता कुल्हाड़ी की ओर जाएगा और आप अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेंगे। इसका दूसरा पक्ष बड़ा भयावह है। जनता के बीच हितैषी बनने वाले स्वयं को अलग रूप में रखते हैं और उन्हें जनता के बीच ही जनता की बातों से लेना देना रहता है। वास्तविक जिन्दगी... सबको ध्यान देना पड़ेगा।

"अन्ना" का मतलब समझे

अन्ना तिहाड़ में हो या तड़ीपार हों। उसूलों और इरादों के पक्के अन्ना से तिहाड़ की कालकोठरी भी डर गई। एक दिन की आंधी ने सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। लेकिन इस बीच जो घटनाक्रम हुआ वो कई सवालों को खड़ा कर गया। अन्ना को सरकार ने अपने सरकारी हथियारों का इस्तेमाल करते हुए भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के अड्डे के बीच पहुंचा दिया। लेकिन, इस अड्डे पर भी अन्ना के कदम पड़ते ही असर दिखना शुरू हो गया। देश में आन्दोलन और तेज हो गया। शुरुआती आन्दोलन में ही इनते जनसैलाब की उम्मीद सरकार ने नहीं की हो गयी। इस जनआंदोलन ने साफ कर दिया कि दो हिस्सों में बंटा भारत किस कदर अर्से बाद एक हुआ है। सरकार को समझने में मुश्किल होने लगी कि अन्ना एक हैं या अनेक। लेकिन, जो इस जनआंदोलन का हिस्सा बने, उनके लिए ये समझना मुश्किल नहीं। हर किसी के माथे पर अन्ना, हर किसी के हाथ में अन्ना, हर किसी के आगे अन्ना, हर किसी के पीछे अन्ना। जो तंग है वो है अन्ना, जो तबाह है वो है अन्ना। हर तबके में अन्ना है, जिन्होंने इमरजेंसी देखी, वो कहते हैं कि अन्ना का ये आन्दोलन कांग्रेस सरकार की तरफ से लगाई गई अघोषित दूसरी इमरजेंसी है। देश भर की जो तस्वीर दिख रही है। वहां हर कहीं अन्ना हैं। दिल्ली से तिहाड़ जेल में सात दिनों की न्यायिक हिरासत में भेजे गये अन्ना। लेकिन, जनआंदोलन की आंधी इतनी तेज हुई कि तिहाड़ की कड़क भी हजारे के आगे हार गयी। लेकिन, सरकार की ओछी मानसिकता इससे साफ हो गयी। अन्ना को जेल में उनके बीच रखने का कुचक्र रचा गया जो लाखों नहीं, करोड़ों-अरबों के भ्रष्टाचारी हैं। सोचिए ईमानदारी और बेइमानी कभी साथ-साथ रह सकते हैं। ये ठीक उसी तरह था कि तेल और पानी की दोस्ती सरकार ने करानी चाही। लोगों के बीच ये चर्चा का विषय बन गया कि अन्ना की जगह भ्रष्टाचारियों के बीच है। भ्रष्टाचारियों की परछाई का खौफ दिखाया गया अन्ना को। लेकिन, अन्ना खौफ के खाकर कर पचा चुके हैं। वर्ना ऐसा आन्दोलन होता ही नहीं। अन्ना को जितना पकड़ने की कोशिश की जा रही है। अन्ना उतने फैलते जा रहे हैं। ठीक संकटमोचक हनुमान की तरह अपने देह का विस्तार कर रहे हैं। अन्ना अपने आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चल पड़े हैं। और साथ में उनके आह्वान पर दो हिस्सों में बंटा समूचा भारत भी। अन्ना को समझने वाले ये भी समझ लें कि देश में एक इंसान क्या नहीं सकता। लोकतंत्र की सच्ची तस्वीर दिखा दी है अन्ना ने। 16 अगस्त से शुरू हुई अन्ना हजारे की अन्ना अगस्त क्रांति को देश की दूसरी आजादी की लड़ाई बताया जा रहा है। इस लड़ाई में एक अन्ना के साथ हजारों हाथ हैं। अन्ना के नाम में ही हजारे लगा है। फिर उनके साथ रहने वाले हजारों नहीं, लाखों-करोड़ों हैं। "अन्ना" समर्थकों के अलावा सभी को अपना मतलब समझा दिया है अन्ना ने। अब तो नासमझ समझ जाएं आर-पार पर उतरे एक अकेला अन्ना का मतलब।

-राजीव रंजन विद्यार्थी, प्रोड्यूसर, सहारा समय

बुधवार, 10 अगस्त 2011

एक खूबसूरत नाटक और सही


पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार का नाम.........। हिना के विदेश मंत्री के रूप में भारत दौरे से ज्यादा चर्चा हो रही है, उनकी खूबसूरती की। सबसे कम उम्र की, सबसे ग्लैमरस मंत्री होने की। ग्लैमर किसे नहीं भाता? भारत खूबसूरत है और उसे खूबसूरती पसंद है। कूटनीति और वैदेशिक नीति की वजह से भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कभी खूबसूरत नहीं हुए। पाकिस्तान से आतंकवाद को रोकने की पहल होती हुई नहीं दिखी। एक कट्टर और जिद्दी पड़ोसी की तरह तेवर में तल्खी बरकरार रखी। हां, अमेरिका और दूसरे राष्ट्रों को दिखाने की खातिर वो भारत आने जाने का सिलसिला कभी बंद नहीं किया। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के फर्ज को निभाते हुए भारत ने सदैव विदेश मंत्रियों और राजदूतों का आतिथ्य-सत्कार किया। लेकिन, मिला क्या? कश्मीर में अलगाव को बढ़ावा देने की कोशिशें बंद नहीं हुईं। आतंकी गतिविधियां बंद नहीं हुईं। महज 34 वर्षीय हिना रब्बानी खार, अपने से 45 वर्ष बड़े भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा से दोनों देशों के रिश्तों को बेहतर बनाने के मुद्दे पर अपने देश आयीं। बुधवार को हुई बातचीत को सकारात्मक बताया गया। जैसा कि हर विदेश मंत्री के साथ हुई वार्ता के बाद बताया जाता रहा है। व्यापार को लेकर जो बातचीत हुई उसमें जम्मू-कश्मीर से जुड़े स्थानीय व्यापार की अवधि बढ़ाने की बात हुई। हफ्ते में दो दिन के व्यापार को बढ़ाकर चार दिन जाएगा। साथ ही धार्मिक स्थलों पर पर्यटन को बढ़ावा देने के मसले पर बातचीत हुई। लेकिन, आतंकवाद के मसले पर कोई सार्थक बातचीत नहीं हुई। मुम्बई हमले के आतंकियों की आवाज से जुड़े नमूने दिए जाने की मांग को पाक विदेश मंत्री ने नकार दिया। गौर करने वाली बात ये है कि पाक विदेश मंत्री हिना का भारत दौरा ऐसे वक्त हुआ है जब कुछ ही दिनों पहले मुम्बई में सीरियल ब्लास्ट हुए। भारत सरकार ने इसे आतंकी घटना करार दिया। इस मामले में कुछ आतंकी पकड़े भी गये। जिनका संबंध पाकिस्तान से जुड़ा बताया गया। इस मसले पर सरकार की बातचीत में क्या हुआ? भारत के विदेश मंत्री के हवाले से देश को बताने की कोई जहमत नहीं हुई। ये भी नहीं बताया गया कि संसद पर हुए हमले और मुम्बई पर इससे पहले होटल ताज पर हुए हमले के आतंकियों के अलावा कई कांडों में संलिप्त करीब पचास आतंकियों की लिस्ट पाकिस्तान को सौंपी गयी है। उस मसले पर क्या हुआ? मुम्बई हमले के आरोपी पाकिस्तान आतंकी कसाब पर अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं। उसका करना क्या है? ताउम्र उसे रखना है, जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे पाकिस्तान आतंकी की सुरक्षा और सेवा में लगा देना है? इसका जवाब भी किसी तरफ से नहीं आया। घाव पर घाव, घात पर घात फिर लगाव कैसा? ये भी दीगर बात है कि पाकिस्तान का ये दौरा बड़ी कूटनीति का हिस्सा भी है। मसलन कुछ दिनों पहले ही पाकिस्तान ने अपनी परमाणु शक्ति बढ़ाई है। उसने परमाणु क्षमता से लैस हत्फ-9 का सफल परीक्षण किया है। जिसे लेकर वायुसेना अध्यक्ष पी वी नाइक ने पाकिस्तान को चेतावनी दे रखी है कि अगर भारत पर परमाणु हमला हुआ तो इसका जवाब काफी भयानक होगा। साफ है पाकिस्तान की तरफ से हाथ तो मिलते रहे हैं, लेकिन, दिल में उतरकर कभी कोई नहीं मिला। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय में लाल कृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान जाकर भी पहल की। लेकिन, हुआ क्या?
हिना रब्बानी खार के भारत दौर को दूसरे दौरे सिर्फ इस मायने में अलग करते हैं कि पहली बार महिला विदेश मंत्री ने दोनों देशों के रिश्ते को सुधारने की पहल की है। पहल का भारत सम्मान करता रहा है और करेगा। लेकिन, सम्मान के बाद कोई संगीन भोंक दे तो उसके क्या कहेंगे? देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा को लेकर देश के राजनेता भी राजनीति नफा नुकसान देखते हों। वहां कितने फैसले होंगे। समझा जा सकता है।
हिना जी की चर्चा विदेश मंत्री होने और भारत दौरे से ज्यादा उनके फेसबुक आईडी पर हर मिनट 30 लोगों के दोस्त बनने से अनुग्रह की हो रही है। बहरहाल, हिना जी चहेते विदेश मंत्री भले हों। लेकिन, उनकी अच्छाई तब और निखर कर आएगी जब वो भारत और पाकिस्तान कटु रिश्ते को सुधारने के लिए कठोर फैसले भी करें। पाकिस्तान के अड़ियल रवैये और पल में शोला बनने की फितरत क्या उन्हें ऐसा करने देगी? काबिलियत किसी उम्र की मोहताज नहीं होती। हिना का पद दोनों देशों के दोस्ताना रिश्ते को बेहतर बनाने में सक्षम है, लेकिन, क्या उनका अपरिपक्व अनुभव क्या ऐसा करने देगा? हिना के इस दौरे से कुछ हो न हो, इतना जरूर हुआ है कि भारत ने हिना के व्यवहार ने एक उम्मीद जगा दी। हिना इस उम्मीद में कितना रंग भरती है। ये देखने वाले बात होगी? क्योंकि पाकिस्तान से दोस्तान संबंध की चाहत विभाजन के बाद से ही रही है। लेकिन, रिश्ते में तल्खी कम होने के बजाय बढ़ी ही हैं। दूरी भले रही हो, दौरे होते रहे हैं। भारत दाएं चलता है तो पाकिस्तान बाएं। इस वक्रीय चाल की वजह से ही आज तक कोई भी पहल सकारात्मक नहीं हुई। हिना का ये दौरा चमकदार दिख रहा है। लेकिन, यही भारत है जिसने दुनिया को बताया है कि हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होता। हिना का ये दौरा क्या रंग लगता है। बस देखते रहिए। क्योंकि, दोनों देशों के राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से सत्ता की कसौटी पर रिश्तों को लेकर आगे बढ़ते और पीछे हटते रहे हैं। जहां हटने के लिए सटने का नाटक होता रहे, वहां एक खूबसूरत नाटक और सही।
-राजीव रंजन विद्यार्थी, प्रोड्यूसर, सहारा समय