शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

बिहार विधानसभा चुनाव: बयानबाजी

बिहार में चुनाव सचमुच कई मायने में अहम हो चला है। राहुल गांधी ने 14 अक्टूबर को तीन सभाएं की और नीतीश पर कई सवाल दागे। इसबार राहुल के वार ओछे पड़े। बिहार में चुनावी भाषण का आधार उन्होंने मध्यप्रदेश में तैयार किया था। उन्होंने वहां अपने बयान में सिमी और संघ का मुद्दा उछाला था ताकि ये बिहार चुनाव में नेताओं के लिए मुद्दा बन जाए लेकिन ऐसा हो न सका। फिर उसी को आधार बना कर राहुल ने भी नीतीश पर नरेन्द्र मोदी को लेकर निशाना साधा। इससे पहले वे कहते रहे थे कि नीतीश का काम सही लेकिन गलत लोगों के साथ हैं। इसबार वे बोल रहे थे कि बिहार का विकास केन्द्र के पैसों की वजह से है। लालू और रामविलास ने भी कुछ हद तक संभलते हुए इस मुद्दे पर हामी तो की लेकिन अपना क्रेडिट लेकर। लेकिन 15 अक्टूबर को नीतीश ने इसका जबाव दे दिया। नीतीश ने मुख्यत दो मुद्दे उठाए। पहला कि जब जेडीयू बीजेपी सरकार बनी थी तो कुछ लोग अल्पसंख्यकों को बीजेपी के नाम से डराने का काम कर रहे थे, लेकिन इस गठबंधन में अल्पसंख्यकों के लिए जितना काम हुआ, पहले कभी नहीं हुआ। दूसरी बात थी कि बिहार को कोटे का ही पैसा मिला है अतिरिक्त कुछ नहीं। आपदाएं भी आईं फिर भी केन्द्र से अलग से कोई मदद नहीं मिली। और तो और इस बार नीतीश ने खुल कर कह दिया कि ‘दम है तो बिहार का फंड रोक कर दिखाए केन्द्र सरकार’। थोड़ा और पीछे चलते हैं। विरोधी दल साथ में राहुल भी पहले राज्य की कानून व्यवस्था को लेकर सवाल खड़ा करते थे, बाद में इस मुद्दे को छोड़ विकास कार्यों पर सवाल खड़ा करने लगे और इसबार उन्होंने नरेन्द्र मोदी का मुद्दा उठाया है। कांग्रेस के चुनाव प्रचार को जिस रूप में देखा जाय लेकिन एक बात तो साफ है कि अब भी कांग्रेस के पास बिहार में उम्मीदवार नहीं हैं जो जनता को लेकर दो कदम भी बढ़ सके। एक बात और जो नीतीश कुमार ने कहा है कि इसबार बिहार में एनडीए की सरकार बनती है तो केन्द्र में भी एनडीए की सरकार ही बनेगी। ये एक ऐसा मुद्दा दे दिया है कि जो एक भावात्मक स्थिति के रूप में ही देखी जा सकती है। ताकि ये लोग चर्चा करें वे अब राज्य में तो मान ही लें क्योंकि केन्द्र सामने रख दिया गया है। जो भी खेल दिलचस्प हो चला है।

पुण्य प्रसून ने कई बातें रख दीं

पुण्य प्रसून वाजपेयी गए ही क्यों थे वहां। हम लोगों से या किसी पटना वाले से ही पूछ लिया होता...फिर भी जो लिखा वो....बहुत खूब...। सदाकत आश्रम में 1962 में कांग्रेस का राष्टीय अधिवेशन पहली बार और अंतिम बार हुआ था। नीलम संजीव रेड्डी अध्यक्ष थे और नेहरू जी ने भाषण में चंपारण को माध्यम बनाकर गांधी जी को याद किया था। लेकिन देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पर चुप्पी साध रखी थी, जिन्होंने सदाकत आश्रम को आबाद किया था। इस अधिवेश के अलगे साल ही राजेन्द्र बाबू का निधन हो गया और सदाकत आश्रम में सूनापन छा गया। 2 अक्टूबर 1966 में कंक्रीट सदाकत का उद्घाटन हुआ और आश्रम दफ्तर में बदल गया। चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस के उम्मीदवारों को 75 लाख रुपये मिलने वाला है इसलिए उम्मीदवार भी कुछ मिल जा रहे हैं। 1921 से 2010 तक 37 अध्यक्षों के नाम लिखे हैं। 1989 से 2010 तक 21 वर्षों में 13 अध्यक्ष बने। 1921 में मजरूल हक और 90 साल बाद 2010 में महबूब अली कैसर। प्रदेश अध्यक्ष की हिम्मत नहीं कि सदाकत आश्रम में आकर बैठ जांय। किसी कांग्रेसी वरिष्ठ में हिम्मत नहीं कि जूते चप्पलों और गाली गलौज में ठहर सकें। टिकटों की मारामारी पर कांग्रेसी नेता खुशफहमी पाल रखे हैं। मनीष तिवारी ने बयान दिया था लोकप्रियता बढ़ी है। लेकिन सच क्या है वे भी समझते हैं। जनसत्ता में प्रकाशित इनका आलेख मुझे मार्मिक लगा है।