गुरुवार, 17 मई 2012

सत्तू ने ली गरीबों जान, डॉक्टर-डॉक्टर चीखते रहे


गर्मी गरीबों का मौसम कहा जाता है इसकी वजह यह है कि इस मौसम में गरीब, जिनके शरीर पर कपड़े नहीं होते वो भी मजे में  जी लेते हैं। लेकिन,  इस गर्मी ने क्या दिन दिखा दिए। जी हां, गर्मी में काम से थके-मांदे गरीबों ने खा लिया सत्तू। रोज की तरह ही खाए थे सत्तू। लेकिन, 14 मई को क्या हो गया उस सत्तू में कि जैसे-जैसे वो पेट में जाता रहा और  जान वैसे ही बाहर निकलती रही। गर्मी और गरीबी का ऐसा वीभत्स चेहरा भी देखने को मिलेगा, कभी सोचा भी नहीं  होगा किसी ने। गर्मी से राहत और भूख पर काबू करने वाले सत्तू ने देखते ही देखते 11 मजदूरों की जान ले ली। बिहार के जहानाबाद जिले के राजा बाजार में भरी दोपहरी में जब मजदूरों के सुस्ताने का वक्त था,  तभी अफरा-तफरा मच गई। हर तरफ हाय-तौबा मची गयी । हालत बिगड़ती गई। सांसें उखड़ने लगी। मुंह से झाग निकलने लगे। जैसे सत्तू  पेट में जाकर खौलने लगा। मुंह से झाग, नाक से झाग। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। क्या हो रहा है? क्या  होगा किसी को कुछ भी नहीं पता चल रहा था। शाम ढलने को आई। कौन कल का सूरज देख पायेगा, ये आशंका गहराने लगी। अस्पताल पहुंचाया गया बीमार मजदूरों को। लेकिन, गरीबों के अस्पताल में क्या होता है। गरीबों का अस्पताल कैसा होता है। इमरजेंसी की कौन कहे, पूरे जहानाबाद सदर अस्पताल में महज एक डॉक्टर रणविजय  सिंह और एक कर्मचारी को छोड़ दूसरा कोई भी नहीं था। मरीज करीब बीस थे। और डॉक्टर एक। बेचारा एक डॉक्टर क्या-क्या करता। कुल मिलाकर डॉक्टर भी यकायक ऐसी नौबत आने से अचंभे में था। उसे सूझ नहीं रहा था क्या करें। जितना बना किया। कईयों को पटना रेफर किया। जहानाबाद से पटना पचास किलोमीटर। यानि जिन्दगी और मौत के करीब एक एक सेकेंड हजार किलोमीटर की रफ्तार से पास आती जा रही थी और उपर से जिन्दगी धरती पर पचास किलोमीटर की दूरी पर था। ऐसे हालात में जिसकी आशंका थी, वही अनहोनी हुई। एक के बाद एक ग्यारह मजदूरों की जान चली गई। लेकिन प्रशासन ने महज नौ के ही सत्तू खाने से मौत होने की पुष्टि की। एक मजदूर की मौत का मतलब उसके परिवार वाले ही जानते है। खैर प्रशासन ने मुआवजे के तौर पर बिहार सरकार की ओर दी जाने वाली सहायता के तहत 2 लाख 61 लाख 500 रुपये की राशि हर मृतक के परिवार को दी गई। साथ में अंत्येष्टि के लिए कुछ और राशि। लेकिन, मरहम की इन बातों से ज्यादा अहम ये है कि हादसों की हकीकत को कोई झुठला नहीं सकता और न ही टाल सकता है। लेकिन, हादसों को कम करने की कोशिशें मुकम्मल हों तो काफी जिन्दगियां बचाई जा सकती हैं। जिसकी पूरी कमी नक्सल और गरीबी की मार से झूठते जहानाबाद में देखने को मिली। एक बार सोचिए तो ये घटना ठीक उस नरसंहार के जैसी थी, जिससे जहानाबाद के गांव जूझते रहे हैं। वैसी ही चीख-पुकार।  वैसा ही मातम। लेकिन, जिम्मेदार कौन? क्या वो सत्तू जिम्मेदार है, जिसमें ज़हरीला पदार्थ मिले होने की आशंका  जतायी जा रही थी। पुलिस महकमे ने सत्तू और कुएं के पानी को जांच के लिए भेजा कि इनमें से ही कोई जिम्मेदार है मौत के लिए। लेकिन, जिम्मेदारी से वो बच निकलने की कोशिश की, जो अस्पताल में रहते तो कईयों की जान बच जाती। जिन्दगी बचाने की कसम खाने वाले डॉक्टर जिम्मेदारी से भागे हुए थे। यहां तक कि सिविल सर्जन उषा सिंह भी शहर से बाहर थीं। जिन्होंने अपने गिरेबान को बचाने के लिए जिम्मेदारी डाल दी उन बेबस मजदूरों पर जो दोपहर से छटपटा रहे थे। सफाई दी कि देर से मजदूर अस्पताल में आए। तो मैडम। जब आए उस वक्त भी तो आपके  डॉक्टर नहीं आए और न ही आप आईं। डीएम और एसपी साहब ही केवल घटना स्थल पर पहुंचे। क्या मजदूर लाचार  थे। नहीं आ सकते थे। आपको खबर मिलने पर आपकी ये जिम्मेदारी नहीं की कि घटनास्थल पर ही वैकल्पिक व्यवस्था ईलाज की जाती। आप जिम्मेदारी किसी को देती या जिम्मेदारी समझती तो शायद ऐसा हो सकता था। मैडम आपका भी दोष नहीं है। बिहार में दूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की बात छोड़िए, राजधानी पटना के आसपास के क्षेत्रों में कोई इमरजेंसी आ जाए तो आपके बेहतर चिकित्सा सेवा मिलने से रही। साफ है कि बिहार सरकार चिकित्सा सेवा को दुरुस्त करने के लिए जो भी करने का दावा करे। दवाएं एक्सपायर हो जाती हैं। बेकार में फेंक दी  जाती हैं। जला दी जाती हैं लेकिन, किसी को दी नहीं जाती। कभी नहीं सुनने अथवा देखने को मिला कि दवाएं फेंकने वाले सर्जन अथवा किसी चिकित्सीय प्रभारी पर कार्रवाई हुई हो। साफ है भय के बिना प्रीति संभव नहीं है। जीना मरना सब यहां भगवान भरोसे है। पिछले साल मुजफ्फरपुर और गया में इंसेफेलाइटिस से करीब दो सौ बच्चे अकाल मौत के शिकार हो गये। महीने भर से ज्यादा समय लग गया बीमारी को पता लगाने में। लेकिन साल भर बाद भी कोई रिपोर्ट नहीं आई। रिपोर्ट आकर भी क्या करेगी। क्योंकि हालात सुधरने से रहे। इच्छाशक्ति हो तब तो जिन्दगी बेहतर हो। बहरहाल, मजदूर चले गये। कई नरसंहारों का गवाह बना जहानाबाद कहिए तो एक बार फिर नरसंहार जैसे हालात का शिकार हुआ। बेबस आंसू बहाने और मुफ्लिसी का मातम मानने के सिवा मजदूरों के पास कुछ भी नहीं। मजदूरों को गर्मी ने बर्बाद तो किया ही, इस मौसम में शीतलता देने वाले सत्तू ने भी सितम ढा दिया।



राजीव रंजन विद्यार्थी 
(लेखक एक निजी समाचार चैनल में प्रोड्यूसर हैं)