मंगलवार, 25 अगस्त 2009

तो....मिल ही गई आजादी

अंग्रेज आए और भारत गुलाम हो गया। अंग्रेज गए और भारत आजाद हो गया। बस इतनी सी बात है। भारत को अगर सचमुच अंग्रेजों ने गुलाम बनाया तो इतने संघर्ष की जरूरत कैसे पड़ गई? कितने गोरी चमड़ी वाले रहे होंगे? यही कोई पांच हजार या फिर कुछ कम-ज्यादा। लेकिन मारे गए अर्थात् शहीद हुए कितने देशभक्त? सच पूछिए तो कोई गिनती ही नहीं है। नेता जी की बातों पर मत जाइए। उनकी जुबां पर शहीदों में से तीन के ही नाम होते हैं। चौथा नाम लेते समय व-व-व-व करते हुए जल्दी से सोच लेते हैं और कई बार तो दर्शक-श्रोता का मुंह देखकर बोलते हैं। पांच छह तो आमतौर पर लोग गिना लेते हैं, लेकिन उसके बाद नाम मालूम है तो पूरा नाम मालूम नहीं। पूरा नाम अगर मालूम है तो शहादत स्थल मालूम नहीं। किस कारण फांसी हुई या गोली शूली हुई यह मालूम नहीं। कभी कहीं से ऐसी सूचना या कार्यक्रम देखने को मिला है? जिसमें शहीदों के नाम का क्विज हो रहा हो। मैंने तो बचपन में शहीदों के नाम पर क्विज होते सुना देखा और भाग भी लिया था, लेकिन उसके बाद फिर कहीं ऐसा क्विज देखने-सुनने को भी नहीं मिला। आजादी मिल गई झंडा फहराने के लिए। कुर्ता टोपी लगाकर भाषण देने के लिए। स्कूलों-दफ्तरों और कुछ संस्थानों में जश्न-ए-आजादी मनाने के लिए। अच्छी बात है। लेकिन गुलामी क्या, गुलामी कैसे और गुलामी किन कारणों से? यह बात साफ साफ सामने नहीं आ रही। एक बात और, क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि गुलाम भारत और आजाद भारत में केवल सिंहासन-कुर्सी का फर्क रह गया है? क्या शासनतंत्र वही नहीं रह गया है? शासन की नीति-सिद्धांतो में क्या-क्या अंतर आया है, इसका विस्तार से आकलन नहीं किया जाना चाहिए? धन विदेश से आ रहा है, कर्ज विदेश से आ रहा है, दवाइयां विदेश से आ रही हैं, और बीमारी भी विदेश से ही आ रही हैं, आर्थिक मंदी विदेश से, मंहगाई विदेश से, अनाज विदेश से, बीज विदेश से, और न जाने क्या-क्या विदेश से। जनता हिम्मत करती है, उत्पादन में लगी रहती है, एक कदम आगे बढ़ती है तो दो कदम पीछे धकेल दिया जाता है। हर साल उजड़ते आशियाने और भ्रष्टाचार की नई नई ईबारत लिख रहे हैं हम। फिर भी आजादी तो मिल ही गई है। शहीदों से प्रेरणा कबतक मिलपाती है यह देखना बाकी है।