गुरुवार, 17 सितंबर 2009

सायंस-टेक्नोलॉजी-त्याग-बलिदान-अस्थिदान

सायंस-टेक्नोलॉजी-त्याग-बलिदान-अस्थिदान

कुछ लोग 17 सितंबर मनाते हैं कुछ लोग नहीं भी मनाते हैं, कुछ लोगों को जानकारी नहीं है कि ऐसा भी कोई सितंबर होता है! इस दिन विश्वकर्मा जी के नाम पर मशीनों, गैरेज, मोटरवाहन, कंस्ट्रक्शन सर्जरिकल काम से जुड़े लोग अपने अपने साधनों यानि वाहन मशीन औजार आदि की साफ सफाई करते हैं और मानते हैं इसमें विश्वकर्मा जी का वास है इसलिए सारे साधनों उपकरणों की पूजा करते हैं। जहां विश्वकर्मा जी की मान्यता है वहां सभी सम्प्रदाय के लोग मनाते हैं क्योंकि उन्हीं मशीनों आदि से उनकी जिन्दगी चलती है। आज के दिन मशीनों का ऑफ डे है छुट्टी का दिन। सालों भर काम करने वाली मशीनों इस दिन खुराक लेती हैं नहाती धोती हैं तेल फुलेल लगाती हैं। अजीब सी बात है मशीनों में भी जीवन, आत्मा-परमात्मा जैसा कुछ बसता है। निश्चित रूप से यह भारत की ही बात रही होगी। वरना दूसरी जगह कौम और काले-गोरे नाम पर मनुष्य पर भी अंगुली उठा देते हैं मशीनों की बिसात ही क्या। सचमुच गजब का सा देश है भारत। हर मनुष्य में भगवान की बात तो करता ही है, मशीनों में भी भगवान खोज लेता है। ऐसे नहीं पश्चिम के महान विद्वान जादूटोना वाला देश कह कर खिल्ली उड़ाते हैं और अपने देश में भी ज्यादा पढ़े लिखे कुछ लोग । बात सही भी है। ऐसी क्या खासियत थी विश्वकर्मा जी में जो उनके नाम पर दिवस मनाया जाय। आवागमन अवरूद्ध कर दिया जाय। यही न कि वे निर्माण के देवता माने जाते रहे हैं। मशीन और आयुध के देवता के रूप में देखे जाते रहे हैं। रातों रात सैकड़ों मंदिर बना देने की कुबत रखने वालों में से हैं। ऐसा तो आज का एडवांस टेक्नोलोजी कमोवेश कर ही सकता है। फिर भी, काम करें हम, इंवेस्ट करें हम, फायदा मिले हमें, तो वे बीच में कहां से। और फिर, होता भी क्या है 17 सितंबर को। गाड़ियां बंद कर दो, मूर्ति बिठा लो, पूजा पाठ करा लो, ब्राह्मणों की पेटपूजा और जेब भराई करा दो, रात होते होते पार्टी सार्टी भी कर लो, हो गई विश्वकर्मा पूजा। इसमें से एक बात भी धर्मनिर्पेक्ष देश के लिए ठीक नहीं लग रहा। लेकिन क्या किया जाए। यही एक ऐसी पूजा है जिसमें कौम नहीं काम देखा जाता है। सांस चलती है मशीनों से तो सिर क्यों नहीं नवाया जाय। यहां कोई दूसरा नारा कभी काम नहीं करता। यह पूजा काफी दिनों से होती आ रही है। बहुत पुराने समय से। इतना कि जब एक एक सीरियल किलर हुआ करता वृत्तासुर। बड़ा बदमाश, राक्षस जैसा करता था, करता क्या था अरे राक्षस ही था। दुनियां के लोग तंगतबाह थे। कोई सामने आने की हिम्मत नहीं करता था। बड़े बड़े वीर उसके सामने शहीद हो गए। इन्द्र की बारी आई तो उनकी भी हालत गड़बड़ा गई। हार हार के भागते फिरने की नौबत आ गई। ये सबलोग मिलकर ब्रह्मा जी के पास गए तो ब्रह्मा जी ने एक रास्ता बताय़ा कि दधिचि की हड्डी से बज्र बनाओ उसी से वृत्तासुर को मार सकते हो, वरना अपनी खैर मनाओ। ये दधिचि कौन थे? कहते हैं उत्कट तपस्वी और महान ऋषि थे भाई। लेकिन उनको आत्महत्या करने कहेगा कौन? फिर भी विश्वकर्मा जी से मिलजुल कर सबलोग हाथ जोड़ कर महान ऋषि दधिचि के पास पहुंचे और कहा कि संसार की रक्षा के लिए आपकी शहादत चाहिए। आपकी हड्ड़ियों को गलाकर ही बज्र बनेगा जिससे वृत्तासुर का वध हो सकेगा। विचित्र देश है भारत। दधिचि बाबा मान गए। मान ही नहीं गए, समाज के लिए मर भी दिए। हड्डियों से बज्र बना। किसने बनाया था वह बज्र। विश्वकर्मा जी ने। विश्वकर्मा जी जो कोई भी रहे होंगे, लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि विश्वकर्मा जी दधिचि जी के पिता थे। अपने पुत्र की हड्ड़ियां निकलवाईं, गलवाईं और उसका बज्र बना दिया। किसी का बच्चा स्कूल से आने में देर हो जाय तो! आसमान सिर पर चढ़ा आता है लेकिन यहां तो अपनी औलाद को अपनी ही आंखों के सामने खुशी खुशी निवेदन करके.....।
हडडियां गलीं, बन गया विकराल बज्र और मारा गया वृत्तासुर। संसार में शांति लौटी। एक रक्त रंजित युग का अंत हुआ। किसके कारण हुआ, विश्वकर्मा जी के कारण हुआ और इसके लिए खुशी खुशी उन्होंने अपने पुत्र का बलिदान कर दिया। आकलन करके, गणना-विचार कर, जोड़-घटाव करके देखा गया तो संयोग से वह दिन 17 सितंबर निकला। कोई माने या माने जो जानता है वह महापुरुष के प्रति श्रद्धा रहेगी ही।