शनिवार, 30 जुलाई 2011

नेकी कर दरिया में डाल

दिल्ली में लाठी डंडे खाने और तड़ीपार किए जाने से पहले बाबा रामदेव, नेताओं से लेकर नजला-जुकाम से पीड़ित तक के भगवान थे। उनकी दवाएं जीवन देती थीं। उनके कार्यकर्ताओं पर कोई उंगली नहीं उठा सकता था। उनके लिए वही आदर था जो भगवान शिव के गणों के लिए किसी भी भक्त के दिल में होता है। लेकिन, बाबा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज क्या उठाई, उनका अस्तित्व उखाड़ने की पूरी कवायद होने लगी। गड़े गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे। कौन कहां का है, ये ढूंढा जा रहा है। बाबा क्या करता है? बाबा के पास कितनी सम्पत्ति है। बाबा कब कहां गया। बाबा सबका बाबा बन बैठा है। जिनको बाबा से खतरा महसूस हुआ वो बापबाप करते हुए बाबा के पीछे हाथ धोकर पीछे पड़ गये। कानून के सिपहसालार भी नेताओं की सुनते हैं क्योंकि ये उनकी फर्ज अदायगी है। बाबा के सहयोगी बालकृष्ण कहां का है? उसे लेकर उनके खेत-खलिहान से लेकर खर-खतियान तक छान डालने में पूरी कवायद झोंक रखी गयी है। बालकृष्ण के नेपाली नागरिक होने की बात सामने आ रही है। लेकिन, ऐसे कई नेपाली हैं, जो बगैर किसी जानकारी के बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली और एनसीआर समेत देश के कई हिस्सों में रह रहे हैं। उनकी तादाद देखनी है तो शाम के समय मार्केट में निकलिए। अपने देश के लोग से ज्यादा नेपाली और बांग्लादेशी मूल के लोग दिखेंगे। कोई मोमोज बेच रहा है। कोई पत्तल उठा रहा है, कोई कपड़े बेच रहा है और न जाने क्या-क्या कर रहा है। सरकार और प्रशासनिक तंत्र को इनपर लगाम लगाने की कोई फिक्र नहीं है। बताया जाता है कि बांग्लादेश के सीमावर्ती क्षेत्र को छोड़ दीजिए जो दिल्ली में भी बांग्लादेशियों की तादाद पिछले एक दशक में लाखों हो गयी है। लेकिन, फुर्सत किसे है? कोई नेता बोला तो कुछ दिन मीडिया की सुर्खियां पाते रहे। फिर उससे बड़ा मुद्दा लाकर उसे ठंडे बस्ते में बंद कर दिया। यही होता रहा है। बांग्लादेशियों और नेपालियों की बढ़ती संख्या पर कोई नियंत्रण नहीं। जनसंख्या का भार देश ढोता रहे। देश में गरीब मरता रहे। एक समस्या सलटाया नहीं कि दूसरी समस्या खड़ी कर दो और सो जाओ। हम किसी की तरफदारी नहीं कर रहे और न ही किसी की शिकायत। बस कहना इतना है कि देश हित में जो बेहतर हो वही होना चाहिए। जब हम पाकिस्तानी गायकों अदनान और राहत फतेह अली खान जैसे कई गायकों के फन सुनकर डिस्को कर सकते हैं। उन्हें उनका पारिश्रमिक दे सकते हैं। सम्मान दे सकते हैं। नेपाली मूल के गायक उदित नारायण के दिलकश आवाज को गुनगुना सकते हैं तो बालकृष्ण के फॉर्मूले की जीवनरक्षक दवाएं क्यों नहीं खा सकते? बिहार के सीमावर्ती जिले किशनगंज, फारबिसगंज, पूर्णियां, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर समेत कई ऐसे जिले हैं, जहां से आज भी लोगों का नेपाल से बेटी रोटी का संबंध है। कल को लोगों को इस नाते भी टार्गेट किया जा सकता है। गलतियों को प्रश्रय नहीं दिया जाना चाहिए ये सब चाहते हैं लेकिन, कई गलतियां क्षम्य भी होती हैं। किसी सौ झूठ से किसी की जान बच सकती है, वहां एक सच को झूठ मान लिए जाने की परम्परा भी देश में है। लेकिन, उन जिद्दियों को ये बात नहीं जंचेगी क्योंकि जब ठान लिया कि अपनी जिद पूरी करने के लिए बर्बाद करना है तो बर्बादी हो जाए। हैरानी तो इस बात की कि करीब साल भर पहले बाबा की दवाइयों को लेकर सवाल खड़े हुए थे। उस समय इतनी जांच क्यों नहीं हुई? वहीं ये सिलसिला रुक जाता। इसका जवाब देगा कौन? अगर कोई गलत मंशा होती तो बालकृष्ण के पास इतना समय था कि वो देश छोड़ देता। फिर मिलती रहती कानूनी तारीख। बहरहाल, अब तो रामदेव के चेले भी साथ छोड़ने लगे हैं। गुरू की किसी गलती का बदला लेने की मंशा कहिये या कुछ और कभी कांग्रेस नेता रहे शंकरदेव भी गृहमंत्रालय तक पहुंच चुके हैं। उन्होंने 2007 में खुद गायब हो जाने के पीछे भी बाबा रामदेव का हाथ बताया है। तमाम तरह की धाराएं लगायी गईं है बाबा और उनके बालकृष्ण को फंसाने के लिए। हर चीज का साक्ष्य नहीं होता है। अब तो पत्नी का पति होने के लिए साक्ष्य में सरकारी कागजात की जरूरत होती है। बालकृष्ण को ऐसे कई साक्ष्यों को कोर्ट में पेश करना होगा। कोर्ट का फैसला सर्वमान्य होगा। इसपर कुछ नहीं कहना है, लेकिन, अगर कुछ चूक हो जाती है और बालकृष्ण समेत बाबा रामदेव को सजा भुगतनी पड़ती है तो वो उस वक्त यही सोचेंगे “नेकी कर दरिया में डाल”। देश के बारे में सोचने वाले रामदेव और बालकृष्ण ये भी सोचेंगे...पेड़ों, फूल-पत्तियों और जड़ों में आयुर्वेदिक दवाइयां ढूंढ कर जीवन बचाने से अच्छा होता... किसी गांव में एकांत झोलाछाप डॉक्टर की तरह बैठे होते। कमा-खा रहे होते। अपने लिए जीते।

- राजीव रंजन विद्यार्थी, प्रोड्यूसर, सहारा समय

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

नील आर्मस्ट्रॉंग 20 जुलाई

20 जुलाई को चार दशक पहले चाँद पर पहली बार कदम रखने वाले नील आर्मस्ट्रांग अस्सी साल के हो गए। अमेरिका के प्रदेश ओहायो के वापाकोनेटा में 5 अगस्त 1930 को नील आर्मस्ट्रांग का जन्म हुआ। बचपन से ही उन्हें हवाई उड़ान से लगाव था और एक किशोर के रूप में वे पास के एक हवाई अड्डे में काम करते रहे। 15 साल की छोटी सी उम्र में उन्होंने पायलट की ट्रेनिंग शुरू की और अपने 16वें जन्मदिन को ही उन्हें पायलट का लाइसेंस मिल चुका था। फिर वे नौसेना में शामिल हुए और कोरियाई युद्ध के दौरान उन्होंने 78 उड़ानें भरी। युद्ध के बाद उन्होंने परडु युनिवर्सिटी में एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग और उसके बाद दक्षिण कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में एमएससी की पढ़ाई की। सन 1955 में वे कैलिफोर्निया के एडवर्डस् एयरफोर्स बेस में टेस्ट पायलट बने, जहाँ उन्हें 50 अलग-अलग प्रकार के हवाई जहाजों में उड़ान भरने का मौका मिला। किसी भी चकाचौंध से दूर रहने वाले नील आर्मस्ट्रांग के जन्म दिन पर कोई बड़ी पार्टी नहीं हो रही है।
सात साल बाद 1962 में वो टेक्सास के युस्टन में नासा के प्रशिक्षण केंद्र में अंतरिक्ष यात्री के रूप में ट्रेनिंग के लिए चुने गए। 1966 में उन्हें पहली अंतरिक्ष उड़ान का मौका मिला जब वे डेविड स्कॉट के साथ जेमिनी 8 मिशन में शामिल हुए। फिर आया 20 जुलाई 1969 का वह दिन, जब चाँद की धरती से उनकी आवाज सुनने को मिली।
'यह एक इंसान का एक कदम है, मानवजाति के लिए एक लंबी छलाँग।'
नील आर्मस्ट्रांग उस समय 39 साल के भी नहीं हुए थे।
राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा फिर से आर्मस्ट्रांग के चांद पर जाने के कार्यक्रम को रद्द किए जाने के बाद अमेरिका की अतंरिक्ष एजेंसी नासा के लिए वह एक नए कार्यक्रम को तैयार करने के लिए चर्चा कर रहे हैं। उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित योजना को राष्ट्रपति द्वारा खारिज किए जाने की आलोचना की है। उन्होंने ओबामा को भेज एक पत्र पर अंतरिक्ष यान अपोलो के अंतरिक्ष यात्री यूजीन कारनेन और जीम लॉवेल के साथ हस्ताक्षर किया है।